Navratri 2022: मध्यप्रदेश के सतना जिले में त्रिकूट पर्वत पर देवी शारदा का एक अति प्राचीन मंदिर हैं। इस मंदिर से चमत्कार के कई किस्से जुड़े हैं। देवी शारदा का यह मंदिर देश के 52 शक्तिपीठों में भी शामिल हैं। पौराणिक मान्यता है कि जब देवी सती को अपने कंधे पर लेकर भगवान शिव शोक में एक स्थान से दूसरे स्थान पर जा रहे थे, तब देवी सती का हर इसी पहाड़ी पर गिरा था। देवी सती का हार यहां गिरने की वजह से ही इस स्थान का नाम माई का हार यानि मैहर पड़ा। साल भर इस शक्तिपीठ में भक्तों का तांता लगा रहता है, लेकिन नवरात्रि के दिनों में यहां लाखों की संख्या में भक्त मां शारदा के दर्शन करने पहुंचते हैं। मंदिर में नवरात्र के दिनों में पैर रखने की भी जगह नहीं होती। भक्त माता की एक झलक पाने के लिए दूर-दूर तक कतार लगाए दर्शन की आस में खड़े रहते हैं। करीब 1063 सीढ़ियां चढ़ने के बाद दर्शनार्थियों को माता के दर्शन होते हैं।

बिना पट खुले हो जाती है पूजा

मैहर के शारदा मंदिर से चमत्कार के कई किस्से जुड़े हैं। उन्हीं में से एक किस्सा है देवी की सबसे पहली पूजा का। कहा जाता है कि मंदिर में देवी शारदा की सबसे पहली पूजा पुजारी नहीं बल्कि उनके अनन्य भक्त “आल्हा- ऊदल” करते हैं। हर दिन रात में मंदिर की आखिरी आरती के बाद मंदिर के दरवाजे बंद कर दिए जाते हैं लेकिन हर सुबह जब मंदिर को खोला जाता है तो देवी मां की प्रतिमा पर ताजे फूल चढ़े हुए मिलते हैं। आज तक किसी ने भी मंदिर में किसी को आते-जाते नहीं देखा, सारे दरवाजे बंद होने के बाद भी नियमित तौर पर मंदिर में देवी मां की पूजा करने के प्रमाण मिलते हैं। कई बार इस रहस्य को जानने की कोशिश भी की गई, लेकिन इसके राज से आज तक कोई पर्दा नहीं उठा सका।

मैहर का इतिहास

मध्यप्रदेश के सतना जिले में मैहर तहसील के पास त्रिकूट पर्वत पर स्थित करीब 600 फीट ऊंची पहाड़ी पर मंदिर यह  स्थित है। मंदिर की गिनती देश के 52 शक्तिपीठों में होती है। मंदिर तक पहुंचने के लिए 1063 सीढ़ियां चढ़नी पड़ती हैं। इस मंदिर की खोज आल्हा और ऊदल दोनों भाइयों ने मिलकर की थी। मंदिर के चारो और जंगल था।  इसी जंगल के बीच आल्हा ने 12 वर्षों तक माता शारदा की तपस्या की थी वह देवी को शारदा माई कहकर पुकारा करते थे मंदिर के नाम के पीछे कुछ लोगों का मानना है कि इसलिए उनका नाम माई की वजह से मैहर पड़ा है। मंदिर से जुड़ी एक मान्यता ये भी है कि यहां सर्वप्रथम आदिगुरू शंकराचार्य ने 9वीं-10वीं शताब्दी में पूजा-अर्चना की थी। माता शारदा की मूर्ति की स्थापना विक्रम संवत 559 में की गई थी।