अंग्रेजी शासन काल से ही भारत में जमीनों पर प्रति व्यक्ति निर्भरता में लगातार वृद्धि हुई और साथ ही साथ जमीदारी महलवारी महालवाड़ी लंबरदारी जैसी प्रथाएं भी चलती रही आजादी के बाद नेहरू सरकार ने भूमि सुधार का प्रयास किया तथा जे सी कुमारप्पा की अध्यक्षता में आयोग का गठन किया आयोग के सुझावों पर जमींदारी प्रथा उन्मूलन काश्तकारी में सुधार चकबंदी जैसे कई प्रयास किए गए| परंतु यह प्रयास पर्याप्त नहीं थे|
किसानों हेतु भूमि विखंडन एक बड़ी समस्या है जो उनमें कृषि कार्य के प्रति अरुचि उत्पन्न करता है| अतः एक बार फिर चकबंदी की आवश्यकता को महसूस किया जा रहा है| चकबंदी का अर्थ खंडित भूमियों को एक भूमि के रूप में पुनर्वितरण करने से है| गैर कृषि क्षेत्र में बढ़ती जनसंख्या और रोजगार के कम अवसर में भूमि पर दबाव बढ़ाया तथा पीढ़ी दर पीढ़ी भूमि विखंडन भी भूमि विखंडन मुख्य कारण हैं| 1977 के दौरान भारत में औसत भूमि स्वामित्व 2.8 हेक्टेयर था जो 2016 में गिर कर 1.08 हेक्टेयर हो गया|
उत्तराखंड राज्य भी इससे अछूता नहीं रहा 2010 से 2016 के आंकड़ों के अनुसार उत्तराखंड में भू स्वामित्व 4.94% की दर से कम हो रहा है| और राज्य स्थापना के बाद 16 वर्षों के समय में कृषि भूमि में लगभग 72000 हेक्टेयर की कमी आई है| जो उत्तराखंड में पलायन किसानों की बदहाली तथा कृषि कार्य के प्रति अरुचि का प्रमुख कारण है| पर्याप्त राजनैतिक और प्रशासनिक समर्थन की कमी के कारण यह मुद्दा या तो चुनावी जुमला ही रहा या फिर ठंडे बस्ते में रहा|
उत्तराखंड की जनता को आजादी के बाद हुई चकबंदी के परिणामों को देखकर सीखना होगा कि वे राज्य जिन्होंने चकबंदी को अनिवार्य रूप से लागू किया जैसे पंजाब हरियाणा आदि आज भारत की सबसे कृषि प्रधान प्रधान राज्यों में से एक हैं और जहां यह स्वैच्छिक रहा वहां भूमि विखंडन की समस्या जस की तस बनी रही|
उत्तराखंड की सरकार को चाहिए कि वह इस मुद्दे पर एक राय बनाकर इसे प्राथमिकी से हल करने का प्रयास करें ताकि उत्तराखंड के ग्रामीण इलाकों से पलायन को रोका जा सके|और पहाड़ी इलाकों में किसानों को कृषि कार्य के लिए प्रेरित किया जा सके