Nanda Devi Festival of Nainital : सरोवर नगरी में नंदा देवी महोत्सव मनाया जा रहा है। दो साल तक इस पर कोरोना का साया पड़ा हुआ था, जिसके कारण साधारण तरीके से ही इसका आयोजन किया गया, मगर इस बार यहां का नजारा बदला हुआ है। महोत्सव को लेकर कोरोना काल से पहले की रौनक लौट आई है। फ्लैट्स के मैदान में मेले का भी आयोजन किया गया है। कई तरह की दुकानें भी सज चुकी है।
1902 में शुरू हुआ था महोत्सव: नंदा देवी महोत्सव (Nanda Devi Festival) नैनीताल में 1902 में शुरू हुआ था। 1926 से श्रीराम सेवक सभा ने आयोजन की जिम्मेदारी उठाई है। तब से यही संस्था इसका आयोजन कर रही है। महोत्सव पर विभिन्न शहरों से पर्यटक नैनीताल आते हैं तो सांस्कृतिक कार्यक्रमों में स्थानीय प्रतिभाओं को मंच प्रदान किया जाता है। पूर्व पालिकाध्यक्ष व आयोजक संस्था से दशकों से जुड़े मुकेश जोशी मंटू बताते हैं नैनीताल में 1902 में अल्मोड़ा से आए मोतीराम साह ने नंदा देवी महोत्सव की शुरुआत की थी, तब नयना देवी मंदिर वर्तमान बोट हाउस क्लब के समीप था। 1880 के भूस्खलन में यह मंदिर जमींदोज हो गया था। जोशी के अनुसार 1926 में श्रीराम सेवक सभा को महोत्सव आयोजन का जिम्मा सौंपा गया।
केले के पेड़ से बनती हैं मां नंदा-सुनंदा की मूर्तियां: नंदा देवी महोत्सव (Nanda Devi Festival) नैनीताल शहर में 120 वर्षों से मनाया जा रहा है। इस महोत्सव का सबसे खास आकर्षण इसके लिए तैयार होने वाली मां नंदा-सुनंदा की मूर्तियां (idols of Maa Nanda-Sunanda) हैं, जो कदली यानी केले के पेड़ से तैयार की जाती हैं। इसमें भी कला व पर्यावरण पर खास ध्यान रखा जाता है। इसके लिए प्राकृतिक रंगों के साथ ईको फ्रेंडली वस्तुओं का ही चयन किया जाता है।
ऐसे तैयार होती हैं मूर्तियां: नंदा देवी उत्तराखंड की कुल देवी मानी जाती हैं। इसलिए उत्तराखंडी अपनी देवी की उपासना का यह मौका गंवाते नहीं हैं। उपासना के लिए केले के पेड़ से खास तरह की मूर्तियां (idols of Maa Nanda-Sunanda) बनाई जाती हैं। ये मूर्तियां भी आयोजक संस्था के कभी अध्यक्ष रहे स्व. ठाकुर दास साह का परिवार ही बनाता है। इसके लिए पांच फीट का केले का तना काटकर उसमें खपच्चियों से चेहरे का आकार दिया जाता है। आंख, कान बनाने के साथ नाक बनाने के लिए बड़े बटन लगाए जाते हैं। सांचे को दबाने के लिए रूई भी उपयोग में लाई जाती है। साथ ही तीन मीटर का सूती का कपड़ा लेकर उसे पीले रंग से रंगा जाता है। आकार बनाने के बाद मूर्ति को जेवर पहनाए जाते हैं। महोत्सव के समापन के साथ इन मूर्तियों का विसर्जन कर दिया जाता है। इस बार सात सितंबर को विसर्जन होगा।
ऐसे होती है कदली की पहचान: महोत्सव में मूर्ति निर्माण के लिए कदली वृक्ष के चयन में तकनीकी व धार्मिक पक्षों का विशेष ध्यान दिया जाता है। मुकेश जोशी मंटू बताते हैं कि ग्रामीण क्षेत्रों के आह्वान के बाद कदली वृक्ष का चयन किया जाता है। कदली वृक्ष पर फूल व अक्षत चढ़ाने के बाद जो पेड़ हिलता है, उसे ही देवी शक्ति मानते हुए मूर्ति निर्माण के लिए चयन किया जाता है। जिस कदली के पेड़ में फल फूल लगे हैं, उसका चयन नहीं किया जाता। इस बार ज्योलीकोट के भल्यूटी से कदली वृक्ष लाया गया है।
कभी चांदी से बनाई जाती थी प्रतिमा: महोत्सव में समय के साथ बदलाव भी आता गया। अाज भले ही केले के पेड़ से मां नंदा-सुनंदा की मूर्तियां बनाई जाती हैं, मगर कभी चांदी से भी इन मूर्तियों का निर्माण किए जाने का भी इतिहास रहा है। 1955-56 तक चांदी की मूर्तियां बनती थीं। यही नहीं, कुछ वर्षों पूर्व थर्माकोल का भी प्रयोग किया जाता था। अब केले के पेड़ से ही इसका निर्माण होता है।
मेला स्थल में सजी दुकानें: नंदा देवी महोत्सव में फ्लैट्स मैदान पर दुकानें सज गई हैं। इस बार दो साल बाद मेला हो रहा है तो दुकानदारों व स्थानीय लोगों में उत्साह है। दुकानदारों को उम्मीद है कि बेहतर मौसम में उनकी अच्छी बिक्री होगी। मनोरंजन के साधन भी खूब आए हैं। पुलिस की ओर से आसामाजिक तत्वों पर सीसीटीवी कैमरों से नजर रखी जा रही है।